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इन्फ्लेमेटरी बॉवेल डिजीज (आईबीडी) पेट और आंत की एक स्वप्रतिरक्षी (ऑटोइम्यून) बीमारी है, जिससे भारत के लाखों लोग प्रभावित हैं लेकिन पेट और आपके अन्य रोगों से मिलते जुलते लक्षणों के कारण इसकी पहचान आसानी से नहीं हो पाती है। आईबीडी न केवल रोगी के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है वरन लापरवाही से कैंसर जैसे गंभीर रोग का कारण भी बन सकती है।
19 मई को ‘आईबीडी जागरूकता दिवस’ के अवसर पर क्षेत्रपाल हॉस्पिटल मल्टी स्पेशियल्टी एंड रिसर्च सेंटर के गेस्ट्रोएंटरोलॉजिस्ट डॉ आकाश माथुर से हुई बातचीत में उन्होंने बताया कि आईबीडी जैसी ऑटोइम्यून बीमारी में व्यक्ति की प्रतिरक्षा प्रणाली (इम्यून सिस्टम) अति सक्रिय हो जाता है, जिससे यह खुद के ही शरीर के ऊतकों (टिशूज) पर हमला करती है और उन्हें नुकसान प
इस रोग के कारण पूरी तरह से स्पष्ट नहीं हैं परंतु यह माना जाता है कि आनुवंशिक, पर्यावरणीय और दोषपूर्ण जीवन शैली के परिणामस्वरूप ऑटोइम्यून प्रक्रिया होती है जो आंत और उसके ऊतकों (टिशूज) को चोटिल करती है। कुछ अध्ययन भारतीय जीवनशैली के पश्चिमीकरण, वसा और कार्बोहाइड्रेट युक्त आहार के बढ़ते सेवन, फाइबर के सेवन में कमी और अल्ट्रा-प्रोसेस्ड खाद्य पदार्थों के बढ़ते उपयोग को इस रोग से पीड़ित लोगों की बढ़ती संख्या का कारण मानते हैं।
यद्यपि इस रोग को एक ही शब्द ‘आईबीडी’ के अंतर्गत रखा गया है पर इस बीमारी को मोटे तौर पर दो उप प्रकारों के रूप में जाना जाता है – अल्सरेटिव कोलाइटिस (बड़े पैमाने पर बड़ी आंत को प्रभावित करने वाला) और क्रोहन रोग (जो बड़ी और छोटी, दोनों आंतों को प्रभावित कर सकता है)। आईबीडी के परिणामस्वरूप जोड़ों, त्वचा, लीवर और विभिन्न अन्य अंगों से संबंधित समस्याएं भी उत्पन्न हो सकती हैं।
आईबीडी के अधिकांश रोगियों को मल में रक्तस्राव, लंबे समय तक दस्त, पेट में दर्द, आंतों में रुकावट, वजन में कमी आदि लक्षण नजर आते हैं।
डॉ माथुर के अनुसार आईबीडी का कोई स्थायी इलाज नहीं है। आईबीडी रोगियों को अधिकांशतः जीवन भर दवा लेनी पड़ती है, जिससे कई बार रोगी कुंठित भी हो जाते हैं। आईबीडी के प्रबंधन के लिए डॉक्टरों और रोगी के बीच समन्वित देखभाल की आवश्यकता होती है तथा यदि नियमित रूप से दवा ली जाए तो इस रोग को नियंत्रित रखा जा सकता है।
आईबीडी के मरीजों को कई बार इस रोग के कारण अनेक गंभीर समस्याओं से जूझना पड़ता है जैसे थकान, पेट दर्द, खूनी दस्त, निम्न रक्तचाप, कुपोषण, प्रणालीगत विषाक्तता आदि, जिससे रोगी का जीवन खतरे में पड़ सकता है या सर्जरी की आवश्यकता भी पड़ सकती है। चूंकि यह आमतौर पर एक लंबी समस्या है, इसके परिणामस्वरूप काम से अनुपस्थिति, आय की हानि, आत्मविश्वास में कमी, सामान्य गतिविधियों, यात्रा करने में कठिनाई आदि हो सकती है।
रोगी की इन सब समस्याओं के बावजूद यदि आईबीडी नियंत्रण में रहता है, तो रोगी नियमित गतिविधियों और आहार संबंधी सावधानियों के साथ लगभग सामान्य जीवन जी सकते हैं।
डॉ आकाश माथुर बताते हैं कि आईबीडी रोगियों को जीवनशैली संबंधित कुछ उपाय राहत पहुंचा सकते हैं। जैसे उन्हें स्वच्छ, अच्छी तरह पका हुआ और संतुलित आहार लेना चाहिए।
फाइबर का सेवन बढ़ाना चाहिए। फाइबर स्वस्थ आंत बैक्टीरिया पर अपने प्रभाव के कारण आईबीडी को कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। हालाँकि,आंतों की सिकुड़न वाले रोगियों के एक उपसमूह में, ज्यादा फाइबर हानिकारक हो सकता है।
तला हुआ और फास्ट फूड कम करना और बाहर के खाने से बचें तथा दही, छाछ, फल और सब्जियाँ अधिक लें। रोकथाम योग्य बीमारियों के लिए वयस्क टीकाकरण का विकल्प भी आईबीडी मरीज़ो को चुनना चाहिए।
जब तक डॉक्टर द्वारा आवश्यक नहीं बताया जाए, दर्द निवारक और एंटीबायोटिक दवाओं से बचना चाहिए।