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एआई और भारत की श्रमशक्ति: नवाचार से हो भविष्य निर्माण

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एआई और भारत की श्रमशक्ति: नवाचार से हो भविष्य निर्माण

डॉ. डी.पी. शर्मा

परामर्शदाता, ILO (संयुक्त राष्ट्र की एक इकाई) एवं डिजिटल डिप्लोमैट

आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) अब कोई दूर का भविष्य नहीं है—यह आज भारत के श्रम बाजार की वास्तविकता बन चुकी है। यह तकनीक एक तरफ जहाँ देश के विकास की रफ्तार को नई ऊँचाई दे रही है, वहीं दूसरी ओर यह पारंपरिक नौकरियों और असंगठित क्षेत्र की आजीविका के सामने गंभीर संकट भी उत्पन्न कर रही है।

आज आवश्यकता इस बात की है कि हम एआई को केवल एक तकनीकी चमत्कार न मानें, बल्कि इसे सामाजिक और आर्थिक दृष्टिकोण से गहराई से देखें। क्या यह प्रगति का पहिया कहीं ऐसे धुएं तो नहीं छोड़ रहा जो भविष्य की नौकरियों को बुझा सकता है?

एआई और रोजगार का द्वंद्व

भारत का श्रम बाजार, जो बड़े पैमाने पर असंगठित क्षेत्र पर आधारित है, एआई-संचालित स्वचालन के प्रति अत्यंत संवेदनशील है। विश्व आर्थिक मंच की 2023 की रिपोर्ट बताती है कि भारत में 2027 तक 6.9 करोड़ नौकरियाँ—विशेष रूप से मैन्युफैक्चरिंग, डेटा एंट्री और ग्राहक सेवा में—प्रभावित हो सकती हैं। आईटी और बीपीओ क्षेत्रों में लगभग 30% पारंपरिक नौकरियाँ ऑटोमेशन के खतरे में हैं।

वहीं दूसरी ओर, एआई की बदौलत डेटा एनालिटिक्स, साइबर सुरक्षा, ग्रीन एनर्जी और हेल्थटेक जैसे क्षेत्रों में 9.7 करोड़ नई भूमिकाओं का उदय हो सकता है। प्रश्न यह है: क्या भारत का श्रमबल इस बदलाव के लिए तैयार है?

सरकारी प्रयासों की दिशा और दायरा

भारत सरकार ने कुछ सराहनीय पहल की हैं:

  • राष्ट्रीय एआई रणनीति (2018) – स्वास्थ्य, कृषि और शिक्षा में एआई के अनुप्रयोग को बढ़ावा देने हेतु।
  • कौशल भारत मिशन और पीएमकेवीवाई – लाखों युवाओं को एआई, IoT और रोबोटिक्स में प्रशिक्षित करने का लक्ष्य।
  • फ्यूचर स्किल्स प्राइम – आईटी सेक्टर में री-स्किलिंग के लिए प्लेटफ़ॉर्म।
  • राष्ट्रीय शिक्षा नीति (2020) – स्कूल स्तर पर प्रोग्रामिंग और एआई को पाठ्यक्रम में शामिल करना।

हालाँकि ये पहलें सकारात्मक हैं, लेकिन इनका प्रभाव अब तक शहरी, औपचारिक और तकनीकी रूप से सक्षम वर्ग तक ही सीमित रहा है। ग्रामीण और असंगठित क्षेत्र के श्रमिक, जो देश की श्रमशक्ति का 83% हैं, इन पहलों से लगभग वंचित हैं।

निजी क्षेत्र बनाम सरकारी संरक्षण

भारत में सरकारी नौकरियों का आकर्षण इतना प्रबल है कि यह निजी क्षेत्र के श्रमिकों की उपेक्षा कर देता है। हर वेतन आयोग के बाद महंगाई बढ़ती है, लेकिन उसका सबसे ज्यादा असर किसान, मजदूर और असंगठित श्रमिकों पर होता है। यह असंतुलन न केवल सामाजिक असमानता को बढ़ाता है, बल्कि देश के विकास को सीमित भी करता है।

सरकार को यह समझना होगा कि देश के श्रमजीवी सिर्फ सरकारी कर्मचारी नहीं होते—प्राइवेट सेक्टर का हर कर्मचारी, मजदूर और किसान भी उतना ही मूल्यवान है। एआई के युग में उन्हें संपदा (asset) के रूप में देखना होगा, न कि बोझ (liability) के रूप में।

ILO का श्रमिककेंद्रित दृष्टिकोण

अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) श्रमिकों की सुरक्षा के लिए एक मानव-केंद्रित एआई दृष्टिकोण अपनाता है:

  • सार्वभौमिक श्रम गारंटी (उचित वेतन, सामाजिक सुरक्षा)
  • आजीवन सीखने के माध्यम से तकनीकी बदलावों में अनुकूलन
  • नैतिक एआई दिशानिर्देश, जो श्रमिक शोषण को रोकते हैं

भारत में, ILO द्वारा समर्थित कार्यक्रम जैसे गिग वर्कर सुरक्षा और स्किल ट्रेनिंग की पहलें सराहनीय हैं, लेकिन ये अक्सर भारत की व्यापार-प्रधान नीति से टकराती हैं। सरकार को चाहिए कि वह इस अंतर को पाटे और नीति में ऐसे बदलाव करे जिससे श्रमिक हितों की रक्षा हो सके।

सार्वजनिकनिजी साझेदारी की आवश्यकता

एआई से उत्पन्न अवसरों का लाभ तभी उठाया जा सकता है जब उद्योग और सरकार मिलकर दीर्घकालिक और स्थायी नौकरियाँ सृजित करें। इसके लिए भारत को ILO के नैतिक AI ढांचे को अपनी राष्ट्रीय नीति में एकीकृत करना चाहिए।

निष्कर्ष: विकल्प हमारे हाथ में है

AI को रोका नहीं जा सकता, लेकिन इसके सामाजिक प्रभावों को नियंत्रित किया जा सकता है। भारत के पास अब दो रास्ते हैं:

  1. अनुकूलन, पुनः कौशल और श्रमिक सुरक्षा को प्राथमिकता देकर एक समावेशी, न्यायसंगत भविष्य की ओर बढ़े
  2. या फिर असमानता, बेरोजगारी और सामाजिक असंतोष से ग्रस्त एक खंडित श्रम बाजार की ओर चले जाए

अभी कार्रवाई करने का समय है। श्रमिकों को डराने के बजाय उन्हें सशक्त बनाएं। तभी भारत एआई के इस नए युग में सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास का वास्तविक अर्थ सिद्ध कर पाएगा।


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